Wednesday, January 16, 2008

यहाँ अलग अंदाज़ है.. जैसे छिड़ता कोई साज है..

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यहाँ अलग अंदाज़ है.. जैसे छिड़ता कोई साज है.. हर काम को टाला करते हैं.. ये सपने पाला करते हैं.. ये हरदम सोचा करते हैं.. ये खुदसे पूछा करते हैं.. क्यों दुनिया का नारा... जमे रहो? क्यों मंजिल का इशारा.. जमे रहो?.. ये वक़्त के कभी गुलाम नहीं.. इन्हे किसी बात का ध्यान नहीं.. तितली से मिलने जाते हैं.. ये पेड़ों से बतियाते हैं.. क्यों दुनिया का नारा... जमे रहो? क्यों मंजिल का इशारा.. जमे रहो?.. क्यों???

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